आत्महत्या के भयावह आँकड़े

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दुनिया भर में होनेवाली आत्महत्याओं में भारतीय महिलाओं की संख्या एक-तिहाई से अधिक और पुरुषों की संख्या लगभग एक-चौथाई है. हमारे देश में ऐसी घटनाओं की दर वैश्विक औसत से भी ज्यादा है.

★पिछले कुछ दिनों में तेलंगाना से 20 से अधिक छात्रों की आत्महत्या की खबर है. तकनीकी खराबी से परीक्षा के परिणाम ठीक से नहीं आने के कारण निराश बच्चों ने ऐसा किया

★आत्महत्या की अगर हम मेडिकल वजह देखें, तो वह है डिप्रेशन यानी विषाद. सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले इसी वजह से आते हैं, क्योंकि गहरी निराशा आदमी को शक्तिहीन बना देती है, जिससे वह मौत का रास्ता अख्तियार कर लेता है. आत्महत्या दो तरह की होती है- आवेग में आकर आत्महत्या करना (इम्पल्सिव सुसाइड) और दूसरा है गहरे अवसाद में आकर आत्महत्या करना (डिप्रेसिव सुसाइड).

★इम्पल्सिव सुसाइड में होता यह है कि व्यक्ति त्वरित निर्णय लेता है, मसलन अगर किसी बच्चे का परीक्षा परिणाम अच्छा नहीं आया, तो आवेग में आकर अपनी जान गंवा देता है. जहां तक डिप्रेसिव सुसाइड का मामला है, तो जब धीरे-धीरे गहरी निराशा जकड़ लेती है, तब व्यक्ति मर जाना बेहतर समझने लगता है.

★डिप्रेसिव सुसाइड के अनेक कारण हैं. मसलन- आर्थिक स्थिति, मानसिक स्थिति, अकादमिक परेशानियां, प्रोफेशनल दबाव, रिलेशनशिप की उलझनें, पारिवारिक झगड़े, विवाहेत्तर संबंध आदि ऐसे मुख्य कारण हैं, जो डिप्रेसिव सुसाइड के लिए जिम्मेदार हैं. इन कारणों का सही तरीके से निवारण न हो, तो व्यक्ति आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है.

★गहरी निराशा की चरम अवस्था ही आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है. अंग्रेजी में एक शब्द है- होपलेसनेस, यह गहरी निराशा से जन्म लेता है कि अब तो मेरा कुछ हो ही नहीं सकता, इसलिए मर जाना ही बेहतर है. अक्सर लोग यह भी सोचते हैं कि परेशानियां हैं, ठीक हो जायेंगी. डिप्रेशन है, तो यह भी अपने आप ठीक हो जायेगा. लेकिन, ऐसा होता बहुत कम है कि कोई बीमारी अपने आप ठीक हो जाये.

★वैसे तो जितने भी कारण है डिप्रेशन बढ़ने के, उन सबको ठीक करने के लिए अलग-अलग उपाय हैं. किसी एक सामान्य उपाय से इसे ठीक नहीं किया जा सकता. लेकिन हां, एक बात बहुत महत्वपूर्ण है, जिस पर हम सबको बहुत ध्यान देना चाहिए. 

वह है परिवार, दोस्त, रिश्तेदार आदि के साथ बात करना और पारस्परिक व्यवहार करना. आज के दौर का आदमी अगर रोजाना अपने एकल परिवार में या संयुक्त परिवार में या फिर दोस्तों-यारों के साथ मिल-बैठकर कुछ देर बातचीत में बिताये, तो मैं समझता हूं कि डिप्रेशन का स्तर तेजी से गिरता है. अगर हम रोज सिर्फ एक घंटा मोबाइल, टीवी और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट को दूर रखकर अपने घर में परिवार के सदस्यों या फिर दोस्तों-पड़ोसियों के साथ बातचीत करें, तो मैं समझता हूं कि निराशा कभी पास नहीं आयेगी.

★और सबसे महत्वपूर्ण बात, हम बच्चों के बचपन को बच्चों की नजर से देखें, बड़ों की तरह नहीं, तो ही बेहतर है. बच्चे हमारी बुनियाद हैं, इसलिए उन पर गैर-जरूरी दबाव बनाने की कभी कोशिश न करें. बात-बात पर टोकने की आदत बहुत खराब है, बच्चों के साथ संयम के साथ पेश आना उन्हें तमाम अच्छी और सकारात्मक बातों को समझने में मदद करना है. लेकिन, मुश्किल यह है कि हम अपने बच्चों पर सबसे ज्यादा अपने सपने थोपते हैं और उनके हर काम में टोका-टिप्पणी करते रहते हैं. इससे बच्चों में नकारात्मकता आती है और उनका व्यवहार बिगड़ता चला जाता है.

★प्रति 40 सेकेंड में एक आत्महत्या

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में प्रतिवर्ष लगभग 8,00,000 लोग आत्महत्या करते हैं, यानी प्रति 40 सेकेंड में एक व्यक्ति खुद की जान ले लेता है.

★आत्महत्या का बढ़ता ग्राफ:-WHO के आंकड़े

वर्ष 2016 में वैश्विक स्तर पर प्रति एक लाख पर 10.6 लोगों ने आत्महत्या की थी, जिसमें पुरुषों की दर 13.5 और महिलाओं का 7.7 था. वर्ष 2015 में प्रति एक लाख पर 10.7 लोगों ने खुदकशी की थी, जिनमें 13.6 पुरुष और 7.8 महिलाएं शामिल थीं

★प्रति एक लाख आत्महत्या करने वालों में पुरुषों में यूरोप और महिलाओं में दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र आगे है जबकि कुल संख्या में यूरोप आगे है।जबकि सबसे कम अनुपात पूर्वी भूमध्य सागर क्षेत्र में है।

★सर्वाधिक आत्महत्या के मामले में 2016 में लिथुआनिया और रूस क्रमशः प्रथम व दुतीय स्थान पर हैं जबकि भारत 21 वें स्थान पर।सबसे कम मामले एंटीगुआ और बरमूडा में प्रत्येक एक लाख के ऊपर 1 से भी कम है।

j★छात्रों में आत्महत्या के बढ़ते मामले

अच्छे करियर और असफलता के भय के बढ़ते दबाव में आकर छात्र कई बार आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देशभर में साल 2014 से 2016 के बीच 26,476 छात्रों ने आत्महत्या की. इनमें 7,462 छात्रों ने आत्महत्या विभिन्न परीक्षा में फेल होने के डर से की थी. बच्चों की बढ़ती आत्महत्या भारतीय शिक्षा व्यवस्था कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है.

★अच्छे भविष्य और रोजगार की है बड़ी चिंता

भारत में शिक्षण से उम्मीद की जाती है कि भविष्य में नौकरी के अच्छे मौके के साथ सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर बेहतर पृष्ठभूमि तैयार हो सकेगी. लेकिन, भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर्याप्त नौकरियों के विकल्प तैयार करने में असफल रही है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट ‘विश्व रोजगार एवं सामाजिक आउटलुक ट्रेंड्स-2018’ कहती है कि लगभग 77 प्रतिशत भारतीय कामगारों की नौकरी पर खतरा मंडरा रहा है. साथ ही 1.89 करोड़ भारतीयों के बेरोजगारी के भंवर में फंसने का डर है.

★अच्छे प्रदर्शन का छात्रों पर बढ़ता दबाव

भविष्य में जॉब की कमजोर होती संभावनाओं के कारण छात्रों पर लगातार बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव बढ़ रहा है. पढ़ाई के दौरान मिलनेवाले आनंद से छात्र वंचित हो रहे हैं. लगातार बढ़ते दबाव और तनाव के कारण छात्रों में सामाजिक जुड़ाव के प्रति अनिच्छा पैदा हो रही है, जिससे वे खुलकर लोगों में मिलना पसंद नहीं करते.

माहौल में लचीलापन जरूरी

बच्चों के व्यवहार में बदलाव और आत्महत्या का ख्याल आने जैसे हालात से बचने के लिए जरूरी है कि आसपास के माहौल को खुशनुमा और लचीला बनाया जाये. अगर किसी बच्चे में अवसाद या तनाव के लक्षण दिखते हैं, तो स्कूल, परिवार और दोस्तों को माहौल बेहतर बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए. जैसे-

अच्छे कम्युनिकेशन के साथ फैमिली सपोर्ट जरूरी

सहपाठी छात्रों और दोस्तों का सपोर्ट जरूरी, सोशल नेटवर्किंग साइट को बंद करें.

स्कूल और कम्युनिटी कार्यक्रमों में भागीदारी.

सांस्कृतिक या धार्मिक विश्वासों से जुड़ाव. इससे आत्महत्या का ख्याल नहीं आयेगा और स्वस्थ्य जीवनशैली बनेगी.

समस्या को सुलझाने का गुण विकसित करना चाहिए.

सामान्य जीवन में संतुष्टि, आत्मसम्मान और उद्देश्य की भावना जरूरी.

प्रभावी चिकित्सा और मानसिक स्वास्थ्य संसाधनों तक आसान पहुंच.

भारत में प्रत्येक 55 मिनट में एक छात्र आत्महत्या कर लेता है.

शैक्षणिक सत्र 2017-18 में आंध्र और तेलंगाना में 150 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या कर ली.

1,00,000 की आबादी पर 14-17 आयु वर्ग में आत्महत्या की घटना दर 9.52 है.

30 से अधिक छात्रों ने हैदराबाद में आत्महत्या कर ली शैक्षणिक सत्र 2017-18 में.

★2016 में हर रोज 17 किसानों ने की आत्महत्या

किसानों की आत्महत्या की अगर बात करें तो वर्ष 2016 में देश भर में 17 किसानों ने हर रोज खुदकुशी की थी. यानी कुल 6,351 किसानों ने खुद की जान ली थी. जबकि वर्ष 2015 में 22 किसानों ने प्रतिदिन अपनी जान दी थी. यानी इस वर्ष कुल 8,007 किसानों ने आत्महत्या की।

★आखिरकार मोदी सरकार ने जारी किए आंकड़े, देश में रोजाना 31 किसान कर रहे आत्महत्या।

★देश में हर महीने 948 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने शुक्रवार को जारी रिपोर्ट में कहा है कि 2016 में देशभर में 11,379 किसानों ने आत्महत्या की थी।सबसे अधिक महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या कर रहे हैं

★अवसाद के लक्षण

परिनों और दोस्तों से दूरी.

व्यवहार में बदलाव (भय, दुख और चिड़चिड़ापन जैसे लक्षण).

खाने और सोने की आदतों में बदलाव.

ड्रग और शराब सेवन की आदत.

खतरनाक बर्ताव करना.

पहले पसंद किये जानेवाले काम में दूरी बनाना.

★आत्महत्या के प्रमुख कारण  : एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2015 में पारिवारिक समस्याएं (27.6 प्रतिशत) और बीमारी (15.8 प्रतिशत) भारत में आत्महत्या करने के प्रमुख कारण रहे. 

वहीं इस वर्ष 4.8 प्रतिशत लोगों ने वैवाहिक जीवन से संबंधित मामले, 3.3 प्रतिशत ने दिवालियापन व इतने ही प्रतिशत ने प्रेम से जुड़े मामले, 2.7 प्रतिशत ने नशा व शराब की लत, 2.0 प्रतिशत परीक्षा में असफलता व इतने ही प्रतिशत ने बेरोजगारी, 1.9 प्रतिशत ने संपत्ति विवाद, 1.3 प्रतिशत ने गरीबी और 1.2 प्रतिशत लोगों ने पेशेवर/ करियर संबंधी समस्याओं के कारण आत्महत्या कर ली थी.

★इन देशों में खुदकुशी में आयी कमी

चीन : वर्ष 1990 के दशक में प्रति 1,00,000 पर 23 आत्महत्या दर वाला देश था चीन, जो विश्व की सर्वाधिक आत्महत्या दर थी. इस देश में पुरुषों की तुलना में खुदकुशी करनेवाली महिलाओं की संख्या भी ज्यादा थी. लेकिन 2014 तक चीन की आत्महत्या दर गिरकर आधी से कम हो गयी. महिलाओं की खुदकुशी दर में 70 प्रतिशत तक की गिरावट आयी. पर्यवेक्षक मानते हैं कि गांव से शहरों में पलायन और ज्यादा लोगों के शहरी मध्य वर्ग का हिस्सा बनने से यहां आत्महत्या दर में कमी आयी.

श्रीलंका : 1990 के दशक में इस देश में 8,500 लोगों ने खुदकुशी की थी. यहां प्रति एक लाख पर आत्महत्या दर 57 थी. वर्ष 2016 तक यहां आत्महत्या करनेवालों की संख्या घटकर 3,000 रह गयी. वहीं खुदकुशी मामलों में 70 प्रतिशत की गिरावट आयी और प्रति एक लाख पर खुदकुशी की दर घटकर 17 रह गयी. इस संख्या में कमी का प्रमुख कारण वर्ष 1995 में विषैले कीटनाशकों के आयात और बिक्री पर प्रतिबंध लगाना रहा. एक अनुमान के अनुसार, कीटनाशकों पर प्रतिबंध से 1995 से 2015 के बीच तकरीबन 93,000 लोगों की जान बचायी जा सकी.

फिनलैंड : फिनलैंड ऐसा पहला देश था जहां खुदकुशी रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सरकार द्वारा पहल की गयी थी. 1970 के दशक में ही यहां सरकार ने खुदकुशी के कारणों की पड़ताल शुरू कर दी थी. आत्महत्या के कुल मामलों में 90 प्रतिशत लोग मानसिक विकारों के कारण एेसा करते थे. सरकार ने अवसाद की पहचान और उपचार के लिए लोगों को प्रशिक्षित किया और एक राष्ट्रीय नेटवर्क द्वारा लोगों के रुख में बदलाव लाने का प्रयास शुरू हुआ. इसके बाद 1990 से 2014 के बीच इस देश की आत्महत्या दर प्रति एक लाख पर 30.3 से गिरकर 14.6 पर आ गयी.

स्कॉटलैंड : वर्ष 2000 में यहां प्रति एक लाख लोगों पर आत्महत्या की दर 31.2 थी, इंग्लैंड से लगभग दोगुना. इससे निपटने के लिए सरकार ने 2002 में ‘चूज लाइफ’ नामक एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की. नतीजा, वर्ष 2011 तक पुरुष आत्महत्या दर में 21 प्रतिशत और कुल दर में 18 प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी.

★भारत में प्रति एक लाख पर 16 लोगों ने की खुदकुशी

डब्ल्यूएचओ के आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2016 में भारत में प्रति एक लाख पर 16.3 लोगों ने आत्महत्या की थी. वहीं वर्ष 2015 में प्रति एक लाख लोगों पर खुदकुशी की दर 16.5 (पुरुष और महिला क्रमश: 18.0 और 14.9) थी.

क्या कहती है लॉन्सेट पब्लिक हेल्थ की रिपोर्ट

ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी (1990 से 2016) के आधार पर ऑनलाइन जर्नल लॉन्सेट पब्लिक हेल्थ की बीते वर्ष जारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में सर्वाधिक आत्महत्याएं भारत में हुई थीं. विश्वभर में 8,17,000 लोगों ने खुदकुशी की थी, जबकि भारत में यह संख्या 2,30,314 थी. इस रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश में महिला और पुरुष दोनों में आत्महत्या से होनेवाली मृत्यु की दर बढ़ रही है. इस रिपोर्ट के अनुसार,

आत्महत्या करनेवाली प्रति तीन महिलाओं में एक भारत से थी वर्ष 2016 में.

भारत में वर्ष 2016 में होनेवाली मृत्यु का नौवां प्रमुख कारण खुदकुशी थी.

आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2016 में आत्महत्या से होनेवाली मृत्यु एड्स से होने वाली मृत्यु (62,000) से और वर्ष 2015 में मातृ मुत्यु संख्या (45,000) से अधिक थी.

भारत में महिला आत्महत्या वैश्विक औसत से 2.1 गुना अधिक है.

भारत में खुदकुशी में विवाहित महिलाओं का प्रतिशत बहुत ज्यादा है.

★दुनिया के तमाम देशों में हर साल लगभग आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें से लगभग 21 फीसदी आत्महत्याएं भारत में होती है। यानी दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा।

★आज भारत मे 37.8 फीसद आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र के है। दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 71 फीसद तक बढ़ी है।

★दरअसल, आज इंसान के चारों तरफ भीड़ तो बहुत बढ़ गई है लेकिन इस भीड़ में व्यक्ति बिल्कुल अकेला खड़ा है। परिवार, मित्र, संगी-साथी तथा स्कूल जैसी ताकतवर संस्थाएं तक आत्महत्या के निवारण मे खुद को असहाय महसूस कर रही है। यही कारण है कि आज बच्चों, नौजवानों, छात्रों, नवविवाहित दुल्हनों तथा किसानों की आत्महत्याएं सामाजिक संवेदनाओं का हिस्सा नहीं बन पा रही है। 

 हैरत की बात यह है कि पारंपरिक रूप से मजबूत तथा परिवार के भावनात्मक ताने-बाने से युक्त भारत जैसे देश में भी खुदकुशी की चाह लोगों में जीवन जीने के अदम्य साहस को कमजोर कर रही है। जबकि भारतीयों के बारे में कहा जाता है कि हर विपरीत से विपरीत स्थितियों में जीवित रहने का हुनर इनके स्वभाव और संस्कार में है और इसी वजह से भारतीय सभ्यता और संस्कृति सदियों से तमाम आघातों को सहते हुए कायम है।

★आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि व्यक्ति में हताशा की शुरुआत तनाव से होती है जो उसे खुदकुशी तक ले जाती है। यह हैरान करने वाली बात है कि भारत जैसे धार्मिक और आध्यात्मिक स्र्झान वाले देश में कुल आबादी के लगभग एक तिहाई लोग गंभीर रूप से हताशा की स्थिति में जी रहे हैं लेकिन डब्ल्यूएचओ का अध्ययन तो यही हकीकत बयान करता है। कुछ दिनों पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट में भी कहा गया था कि देश के लगभग साढ़े छह करोड़ मानसिक रोगियों में से 20 फीसदी लोग अवसाद के शिकार हैं।

★देश में युवाओं की आत्महत्या के ताजा आंकड़े भयावह हैं. एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में खुदकुशी करने वालों में सबसे ज़्यादा युवा हैं. नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल 2018 में खुदकुशी से जुड़े आंकड़े दिए गए हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक, आत्महत्या की घटनाओं में 15 साल में 23 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ.

रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 में एक लाख 33 हज़ार से ज़्यादा लोगों ने खुदकुशी की, जबकि 2000 में ये आंकड़ा केवल एक लाख आठ हज़ार के क़रीब था. आत्महत्या करने वालों में 33 प्रतिशत की उम्र 30 से 45 साल के बीच थी, जबकि आत्महत्या करने वाले क़रीब 32 प्रतिशत लोगों की उम्र 18 साल से 30 साल के बीच थी.

★खुदकुशी करने की प्रवृत्ति पुरुषों में ज्यादा

खुदकुशी करने वालों में पुरुषों की गिनती महिलाओं से कहीं ज़्यादा है. 2015 में 91,500 से ज़्यादा पुरुषों ने खुदकुशी की. ये आंकड़ा खुदकुशी करने वालों के कुल आंकड़े का 68 प्रतिशत से भी ज़्यादा है, जबकि खुदकुशी करने वाली महिलाओं की गिनती 42 हज़ार से कुछ ज़्यादा रही. ये आंकड़ा खुदकुशी करने वालों की कुल गिनती का साढ़े 31 प्रतिशत है.

★महाराष्ट्र में सर्वाधिक लोगों ने ली खुद की जान महाराष्ट्र और तमिलनाडु दो ऐसे राज्य हैं, जो आर्थिक रूप से संपन्ना राज्यों की श्रेणी में आते हैं, जो आर्थिक प्रगति के दवाब को दिखाता है.

वर्ष 2015 में, देश में आत्महत्या के कुल मामलों में सर्वाधिक मामले महाराष्ट्र (16,970) से थे. 15,777 आत्महत्या मामलों के साथ तमिलनाडु दूसरे, 14,602 के साथ पश्चिम बंगाल तीसरे, 10,786 के साथ कर्नाटक चौथे और 10,293 के साथ मध्य प्रदेश पांचवें स्थान पर था. इस प्रकार देश में होनेवाली कुल आत्महत्याओं का 51.2 प्रतिशत अकेले इन पांचों राज्यों में हुआ. जबकि 48.8 प्रतिशत में बाकी बचे 24 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश शामिल थे. नागालैंड इस सूची में निचले पायदान पर था.

★पुदुचेरी में उच्च रही आत्महत्या दर

वर्ष 2015 में पुदुचेरी आत्महत्या दर में सबसे आगे रहा. प्रति एक लाख पर जहां पूरे भारत की आत्महत्या दर 10.6 थी, पुद्दुचेरी में यह 43.2 थी. वहीं 37.5 के साथ सिक्किम दूसरे, 28.9 के साथ अंडमान व निकोबार द्वीप समूह तीसरे, 27.7 के साथ तेलंगाना एवं छत्तीगढ़ चौथे और 25.4 के साथ दादर व नागर हवेली पांचवें स्थान पर थे. पूरे भारत वर्ष में बिहार में आत्महत्या दर इस वर्ष सबसे कम 0.5 दर्ज की गयी थी, जबकि झारखंड में यह दर 2.5 थी.स्रोत : 

★आत्महत्या से निपटने में पीछे हैं हम:-

हमारे देश में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, लेकिन पूरे देश में सिर्फ 44 सुसाइड हेल्प सेंटर हैं. इनमें भी सिर्फ नौ सेंटर ऐसे हैं जो 24 घंटे खुले रहते हैं. इतना ही नहीं, कोई एक ऐसा नंबर भी नहीं है, जो इन हेल्प सेंटरों को आपस में जोड़ सके. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि मानसिक विकारों से ग्रस्त लोगों की संख्या और आत्महत्या करनेवालों की संख्या में इजाफा हाेने के बावजूद हमारे पास इससे निपटने व इसकी संख्या में कमी लाने के कारगर उपाय मौजूद नहीं हैं.

अगर आप किसी प्रकार का तनाव महसूस कर रहे हैं और आपको किसी प्रकार की मदद की दरकार है, तो आप इन केंद्रों पर संपर्क कर सकते हैं. ऑल-इंडिया टोल-फ्री हेल्पलाइन नंबर,  

कनेक्टिंग इंडिया 18002094353 (दोपहर 12ः00 बजे से शाम 8ः00 बजे तक) टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज-आईकॉल टेलीफोन आधारित परामर्श ः 022-25521111 (सोमवार से शनिवार, सुबह 8ः00 बजे से रात्रि 10 बजे तक)  

इ-मेल आधारित परामर्श ः  icall@tiss.edu   चैट आधारित परामर्श ः  nULTA App (सोमवार से शुक्रवार, सुबह 10ः30 बजे से शाम 5ः30 बजे तक)

★ये हैं मध्यप्रदेश में आत्महत्या के प्रमुख कारण

पारिवारिक 26 फीसदी

बीमारी की वजह 19 फीसदी

वैवाहिक कारण 11 फीसदी

बेरोजगारी 6 फीसदी

नशे की लत 5 फीसदी

प्रेम संबंध 3 फीसदी

संपत्ति विवाद 3 फीसदी

परीक्षा में फेल 2 फीसदी

अन्य कारण 16 फीसदी

 

किस प्रोफेशन में कितनी खुदकुशी

गृहणियां 26 प्रतिशत

दैनिक वेतन भोगी 19 प्रतिशत

कृषि क्षेत्र के 13 फीसदी

बेरोजगार 12 फीसदी

नौकरी वाले 6 फीसदी

छात्र 6 फीसदी

व्यवसायिक 6 फीसदी

रिटायर्ड 1 फीसदी

★सुकून भरी मौत का स्विस मॉडल

स्विट्जरलैंड में आत्महत्या के लिए मदद को नागरिक का अधिकार माना जाता है। यह देश सुसाइड टूरिज्म के रूप में उभर रहा है।

★इसी साल मई में 104 वर्षीय ऑस्ट्रेलियन वैज्ञानिक डेविड गूडाल अपने घर पश्चिम ऑस्ट्रेलिया से स्विट्जरलैंड पहुंचे।

★नाम और पैसा कमाने वाले भी क्यों कर लेते हैं सुसाइड?

 

शैक्षणिक आधार पर

अनपढ़ 20

पांचवीं कक्षा तक 23

आठवीं तक 21

हायर सेकंडरी तक 18 फीसदी

कॉलेज पहुंचने वाले 11 फीसदी

प्रोफेशनल्स 4 फीसदी

ग्रेजुएट 2 फीसदी

डिप्लोमाधारी 1 फीसदी

आत्महत्या करने में लोग सबसे ज्यादा फांसी के फंदे पर झूलते हैं। 49 प्रतिशत लोग फांसी लगाकर सुसाइड करते हैं।

★हाल के दिनों में एक के बाद एक कई चर्चित लोगों की खुदकुशी की खबरें आयी हैं. आध्यात्मिक गुरू भैय्यू जी महाराज, आईपीएस अफसर हिमांशु रॉय, सीएनएन के सेलिब्रिटी शेफ एंथनी बोरडैन और मशहूर फैशन डिजाइनर केट स्पेड – ये चारों अलग-अलग क्षेत्र के नामचीन चेहरे थे. इनमें से कोई भी आर्थिक संकट से नहीं जूझ रहा था. ये सभी अपने-अपने क्षेत्र के कामयाब लोग थे. इसलिए यह कहना कि लोग आत्महत्या आर्थिक तंगी की वजह से या फिर  करियर में नाकामी की वजह से करते हैं, एक गलत सोच है.

चारों उम्र के जिस पड़ाव में थे और कामयाबी के जिस मुकाम पर थे वहां पहुंचने के लिए उन्होंने कई मुश्किल चुनौतियां पार की होंगी. इसलिए यह कहना भी गलत है कि आत्महत्या करने वाले कमजोर होते हैं.

अपने जीवन में व्यक्ति एक साथ कई भूमिकाओं में होता है. पुत्र/पुत्री, भाई/बहन, पति/पत्नी, पिता/माता और दोस्त. कई अन्य भूमिकाएं कारोबार और प्रोफेशन से जुड़ी हुई होती हैं. जब किसी व्यक्ति की सांस टूटती है तो उसके साथ उन सभी रिश्तों को डोर भी टूट जाती है जिन्हें थामे वह जीवन के सफर पर चल रहा था. इसलिए मृत्यु दुख देती है. अगर मृत्यु की वजह खुदकुशी हो तो उस व्यक्ति के करीबी लोगों के दिल में गहरी टीस रह जाती है. वो सभी इस अफसोस को सीने में लेकर जीते हैं कि शायद थोड़ा सतर्क रहते तो वह उनके साथ होता.

सब जानते हैं कि मौत जीवन का अंतिम सत्य है और उसकी आखिरी मंजिल भी. बहुतों ने बुद्ध को भी पढ़ा होगा और गीता को भी. यह अहसास तो सभी को होता है कि “सब अनित्य है” (Nothing is permanent), लेकिन ऐसे मामलों में सब ज्ञान धरा रह जाता है. हमेशा यही लगता है कि जाने वाले के दिमाग में चल रहे द्वंद को थोड़ा पहले महसूस करना चाहिए था और विशेषज्ञों की मदद लेनी चाहिए थी. शायद वो उसे उस मानसिक भंवर से बाहर निकाल लेते, जिसमें डूब कर उसने प्राण त्यागने का फैसला लिया. 

आत्महत्या करने वालों के परिवार वाले जीवन का शेष सफर इसी अहसास के साथ पूरा करते हैं. मैंने कुछ करीबी लोगों को इस अहसास के साथ जीते देखा है. ऐसे ही मौकों पर लगता है कि पीड़ा को बयां करने में शब्दों की क्षमता कितनी सीमित है! कोई भी शब्द उन चीखों और सिसकियों को बयां नहीं कर सकता जो भीतर उठती हैं मगर बाहर नहीं निकल पातीं.

★गरीब देशों से ज्यादा है अमीर देशों में खुदकुशी दर

WHO रिपोर्ट के मुताबिक कई अमीर देशों में खुदकुशी की दर गरीब देशों से ज्यादा है. फिनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल देश है, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है फिनलैंड दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां आत्महत्या दर सबसे अधिक है.

अमीर देशों में एक महिला की तुलना में तीन मर्द खुदकुशी करते हैं. लेकिन मध्य और कम आय वाले देशों में यह अनुपात 1.5 का है. यानी एक महिला की तुलना में 1.5 पुरुष खुदकुशी करते हैं. दुनिया में आत्महत्या मर्दों की हिंसक मौत का 50 प्रतिशत और औरतों की हिंसक मृत्यु का 71 प्रतिशत है. उम्र के मामले में आत्महत्या दर सबसे अधिक 70 साल से अधिक आयु के बुजुर्गों में है. जबकि 15 से 29 साल की उम्र के लोगों की मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण है.

रिपोर्ट में यह बात भी दर्ज है कि आत्महत्या से हर एक मृत्यु के साथ करीब 20 आत्महत्या की कोशिशें होती हैं. इसका एक मतलब यह है कि आत्महत्या की कोशिश के दौरान कई लोग बच जाते हैं. दूसरा अर्थ यह है कि समय पर मदद मिली होती तो शायद वो इस मुकाम तक नहीं पहुंचते.

★इसलिए अगर आप किसी गहरे अवसाद से गुजर रहे हैं तो किसी अपने से उसके बारे में बात कीजिए. यदि कोई आपका अपना अचानक गुमसुम रहने लगा हो तो आगे बढ़ कर उससे बात कीजिए. हो सकता है कि उसे मदद की जरूरत हो. युवाओं और बुजुर्गों का खास ख्याल रखिए. बच्चों पर अपने सपनों का बोझ मत लादिए.

खुद भी जरूरत से ज्यादा जिम्मेदारी मत ओढ़िए. दर्द बर्दाश्त करते रहना बहादुरी नहीं है. बहादुरी उसका समझदारी से मुकाबला करने में है.फिल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण को देखिए. उन्होंने डिप्रेशन का डट कर मुकाबला किया है और आज कामयाबी की बुलंदी पर हैं. सच में जिंदगी से अधिक खूबसूरत कुछ भी नहीं.

★कोई भी व्यक्ति तुरंत ही आत्महत्या का कदम नहीं उठा लेता। उसके मन में यह विचार काफी दिनों से चल रहा होता है। अगर आस-पास के लोग उसके व्यवहार को जांचकर इस बारे में जान पाएं तो उस व्यक्ति को आत्महत्या से रोका जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि लोगों में मेंटल हेल्थ को लेकर अवेयरनेस जरूर हो।

★WHO ने अपने मेंटल हेल्थ ऐक्शन प्लान के तहत फिलहाल इसे 10 प्रतिशत तक घटाने का प्लान रखा है

★गांव की अपेक्षा शहरों में अधिक 

सूइसाइड केसेज की स्टडी से जुड़ी कई रिपोर्ट्स में यह बात सामने आ चुकी है कि गांव की अपेक्षा शहरों के युवाओं में सूइसाइड कमिट के केस अधिक देखने को मिलते हैं। आमतौर पर इनकी आयु 20 से 40 साल के बीच होती है। इसकी वजहों में सबसे अधिक एक्यूट स्ट्रैस रिलेटेट टु जेंडर डिस्क्रिमेशन, इकॉनमिकल स्टेटस, खुद को प्रूव करने का दबाव या रेप जैसे केस भी शामिल हैं। विकसित देशों और अविकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में सूइसाइड रेट कहीं अधिक देखने के मिलता है। वहीं, गरीब देशों में अमीर देशों की तुलना में 3 गुना ज्यादा लोग सूइसाइड कमिट करते हैं।

★यह प्रवृत्ति हमारी सोसायटी में क्यों बढ़ रही है? तो इसके कई कारण हैं। सबसे पहला कारण तो मेंटल इलनेस ही है। इसमें डिप्रेशन, एंग्जाइटी, किसी तरह का एडिक्शन, इमोशनल रीजन, जैसे रिलेशनशिप में दिक्कत या ब्रेकअप ना सहन कर पाना आम कारण हैं। इसके अतिरिक्त किसी बीमारी के चलते क्रॉनिक पेन, कोई क्रॉनिक इलनेस जैसे, कैंसर, डायबिटीज आदि भी शामिल हैं। इनके साथ ही सोशल कॉज में किसी तरह का इकनॉमिक लॉस होना या लंबे संघर्ष के बाद भी जॉब ना लग पाना, परिवार या समाज का खुद को प्रूव करने को लेकर अत्यधिक दबाव होना भी इसके कारणों में देखे गए हैं।

★ये हैं अलार्मिंग साइन 

हम पहले भी कह चुके हैं कि सूइसाइड प्रिवेंशन के लिए इसके लक्षणों की पहचान जरूरी है। जरूरी है कि जो व्यक्ति इस तरह की मानसिक अवस्था से गुजर रहा है, उसके आस-पास इस बीमारी के अलार्मिंग साइन पहचानने वाले लोग हों। अगर कोई व्यक्ति इस दिशा में बढ़ रहा है तो वह अपने आस-पास के लोगों से लगातार नेगेटिव थॉट्स शेयर करता है। उसकी हर बात में निराशा झलकती है। वहीं, डेथ विश, सूइसाइड आइडियाज और हैलोजिनेशन की वजह से भी कुछ लोग आत्महत्या करते हैं। पास्ट हिस्ट़्री ऑफ द पर्सन, जिसने सूइसाइड अटैम्प किया हो। अगर किसी ने पिछले तीन महीने में आत्महत्या की कोशिश की है तो इस बात के चांस बढ़ जाते हैं कि वह दोबारा इस तरह का कदम उठा सकता है। परिवार में अगर किसी ने पहले सूइसाइड कमिट किया होता है, तब भी उस फैमिली के यंगस्टर्स किसी दबाव या मानसिक समस्या के दौरान इस तरफ आकर्षित हो सकते हैं। 

ऐसे में रहें अधिक सतर्क 

जब कोई व्यक्ति सूइसाइड कमिट करने की कोशिश करता है और उसको बचा लिया जाता है तो उस दौरान हम उस व्यक्ति की फैमिली हिस्ट्री को खंगालते ही हैं, साथ ही उसके परिवार को भी आगाह करते हैं। क्योंकि आमतौर पर यह चीज देखने को मिलती है कि एक बार सूइसाइड कमिट करने का प्रयास कर चुका व्यक्ति अगले तीन महीने के अंदर इस प्रक्रिया को दोहरा सकता है। ऐसा देखा गया है कि एक बार यह कोशिश करने के बाद व्यक्ति तीन महीने के भीतर दोबारा इस तरह के ऐक्ट को करता है। 

कैसे पहचानें लक्षणों को? 

जब कोई व्यक्ति दिमागी तौर पर परेशान होता है या उसके दिमाग में सूइसाइड को लेकर प्लानिंग चल रही होती है तो नेगेटिव बातें करने के साथ ही वह खाना कम खाने लगता है। यानी उसकी डायट लगातार घट रही होती है। उसे नींद नहीं आती या वह बहुत कम समय के लिए ही सो पाता है, पहले की तुलना में लोगों से मिलना और बात करना बंद कर देता है या बेहद कम कर देता है, पहले की तरह खुशमिजाज नहीं रहता है। अगर आपको अपने परिवार या आस-पास किसी व्यक्ति के व्यवहार में इस तरह के बदलवा देखने को मिलें तो इन्हें गंभीरता से लें। 

यह भी पढ़ें:डिप्रेशन और इसके इलाज के बारे में कम लोग जानते हैं यह बात 

रोकथाम के लिए क्या करें? 

प्रिवेंशन के तौर पर सबसे पहले आप लेट्स टॉक का फॉर्म्यूला अपनाएं। यानी इससे बात करें, उसकी सुनें, उसे अपने साथ का अहसास कराएं। ताकि वो इमोशनल स्ट्रैस शेयर कर सके। जब कोई व्यक्ति इस तरह की मानसिक अवस्था से गुजर रहा हो और उसके पास कोई उसकी बात सुनने वाला नहीं होता तो वो अपने अंदर चल रही उलझनें शेयर नहीं कर पाता और सब अंदर ही अंदर रह जाने के कारण वह घुटन महसूस करता है और फिर अवसाद का शिकार होता है और इस तरह के खुद को हानि पहुंचाने वाले कदम उठाता है। 

कंसल्ट विद सायकाइट्रिस्ट 

अगर आपको लगता है कि सिर्फ बात करने से बात नहीं बन पाएगी और परेशान व्यक्ति निराशा की तरफ जा चुका है। ऐसे में बिना वक्त गवाए सायकाइट्रिस्ट से कंसल्ट करें। बताई गई दवाइयां समय पर दें। साथ ही ऐसी चीजें जो सुइसाइट कमिट करने के लिए यूज की जा सकती है, उन्हें दूर रखें। पीड़ित व्यक्ति के व्यवहार पर नजर रखें और इसे हर समय कंफर्टेबल फील कराएं। आपके लिए जरूरी है कि आप उसे किसी भी चीज के लिए फोर्स ना करें, सिर्फ उसकी बात सुनें और सजेशन दें। प्रेशर क्रिएट ना करें।

★अगर आपका कोई करीबी डिप्रेशन से गुजर रहा हो तो आपका सपॉर्ट उनकी रिकवरी में अहम भूमिका निभा सकता है। सच तो यह है कि मानसिक रूप से परेशान लोगों को शारीरिक रूप से परेशान लोगों जितनी ही केयर की जरूरत होती है। डिप्रेशन एक सीरियस समस्या है लेकिन इसका इलाज है। यंग एज से लेकर बुजुर्ग तक कोई भी इसका शिकार हो सकता है। धीरे-धीरे डिप्रेशन खतरनाक हो जाता है और यह सिर्फ इसके शिकार लोगों ही नहीं उनके आस-पास के लोगों को भी प्रभावित करता है।

ऐसे पहचानें डिप्रेशन के लक्षणलगातर शांत रहना और डेली लाइफ की किसी भी ऐक्टिविटी में रुचि न लेना। दोस्त, फैमिली और सोसाइटी से भी कट जाना।

ज्यादा चिंता करना, जीवन के प्रति नकारात्मक नजरिया रखना, बात-बात पर गुस्सा करना, दुखी रहना।

नींद ज्यादा आना या बहुत कम आना।

खाना ज्यादा खाना या सामान्य से कम खाना।

आप क्या कर सकते हैं

जो लोग डिप्रेशन से गुजर रहे होते हैं उन्हें नहीं पता चलता कि वे इसकी चपेट में आ चुके हैं। आप उनसे बात करें और उनके परेशान होने का कारण जानने की कोशिश करें।

आप उनके लक्षणों को देखकर उनकी आलोचना न करें, न ही उनसे एकदम से सामान्य होने की उम्मीद करें।

अगर उन्हें गुस्सा या चिड़चिड़ापन लग रहा है तो आप धैर्य से काम लें क्योंकि वह व्यक्ति नहीं बल्कि बीमारी उससे ऐसा करवा रही है।

उन्हें साइकायट्रिस्ट या सॉइकॉलजिस्ट के पास लेकर जाएं। अगर वह जाने के लिए तैयार न हों तो आप खुद एक्सपर्ट से मिलकर बात करें।

‘मैं तुम्हारे साथ हूं, तुम अकेले नहीं हो, बताओ मैं क्या कर सकता हूं…’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें।

उन्हें अकेला न छोड़ें, अच्छे वक्त को साथ में बैठकर याद करें।

★राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के आंकड़े

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के वर्षवार प्रतिवेदनों का अध्ययन करने से पता चलता है कि वर्ष 2001 से 2015 के बीच भारत में कुल 18.41 लाख लोगों ने आत्महत्या की. इनमें से 3.85 लाख लोगों (लगभग 21 प्रतिशत) ने विभिन्न बीमारियों के कारण आत्महत्या की. इसका मतलब है कि भारत में हर एक घंटे 4 लोग बीमारी से तंग आकार आत्महत्या कर लेते हैं . हर पांच में से एक आत्महत्या बीमारी के कारण होती है. इसलिए इस मसले को स्वास्थ्य मंत्रालय को ‘स्वास्थ्य के अधिकार’ के नजरिए से देखना चाहिए.

गौरतलब है कि जो आंकड़ा एनसीआरबी ने दिया है उसमें से 1.18 लाख लोगों ने मानसिक रोगों के प्रभाव में और 2.37 लाख लोगों ने लम्बी बीमारियों से परेशान होकर आत्महत्या की है. इनमें अवसाद, बायपोलर डिसआर्डर, डिमेंशिया और स्कीजोफ्रीनियां के रोगियों की संख्या सबसे ज्यादा है. ये ऐसे रोग हैं, जिनमें व्यक्ति अपने आप को और अपने व्यवहार को ही नियंत्रित नहीं कर पाता है.

भारत में इन 15 सालों में बीमारी के कारण सबसे ज्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र (63,013), आंध्रप्रदेश (48,376), तमिलनाडु (50,178), कर्नाटक (48,053) और केरल (37,465) में हुईं . इस कारण देश में हुई कुल आत्महत्याओं में से 2,47,085 यानि 64 फीसदी मामले इन पांच राज्यों में दर्ज हुए . हमें इस पहलू पर भी नजर डालनी होगी कि देश में पक्षाघात (9,036), कैंसर (11,099) और एचआईवी (9,415) के कारण भी बहुत आत्महत्याएं हुई हैं. इसमें से ज्यादातर मरीज गरीब थे, जिन्हें वक्त पर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलीं.

★mental health

In low-income countries, the rate of mental health workers can be as low as 2 per 100 000 population, compared with more than 70 in high-income countries. This is in stark contrast with needs, given that 1 in every 10 person is estimated to need mental health care at any one time.

★Every US$ 1 invested in scaling up treatment for common mental illnesses such as depression and anxiety leads to a return of US$ 4 in better health and ability to work.

★Government expenditure on mental health is less than 1 US$ per capita in low and lower middle income countries whereas high-income countries spend more than US$ 80.

★अवसाद 

अवसाद क्या है आमतौर पर, डिप्रेशन या अवसाद वह अवस्था है, जिसमें इंसान दुख, हानि, व्यर्थता और अक्षमता की सर्वव्यापी भावना का अनुभव करता है.  जिन विषयों में पहले उसकी रुचि रही हो, उसमें भी उसका मन नहीं लगता और आत्महत्या करने जैसे आत्मघाती खयाल आते हैं. डिप्रेशन भावात्मक अथवा मूड डिसऑर्डर माना जाता है. यहां मूड से मतलब उस भावनात्मक अवस्था से है, जो निरंतर बनी रहती है. यह भावनात्मक स्वभाव आस-पास के वातावरण एवं समाज में सहभागिता के प्रति व्यक्ति की उदासीन मान्यताओं के रूप में परिलक्षित होता है. ऐसे निश्चित लक्षण जो कम से कम दो हफ्तों तक बने रहते हैं, क्लिनिकल डिप्रेशन की चिकित्सकीय अवस्था मानी जाती है.

★भारतीय सर्वाधिक अवसादग्रस्त, मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरूरत, जानें अवसाद के कारण व बचाव के उपाय

★मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरूरत भारतीय सर्वाधिक अवसादग्रस्त आज दुनिया भर में 300 मिलियन लोग डिप्रेशन (अवसाद) के शिकार हैं और इनमें भारत अव्वल है.

★ पूँजी के खेल ने लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान से ऊपर उठाकर, अन्य आकांक्षाओं की तरफ ढकेला है. बच्चों और युवाओं पर पढ़-लिखकर काबिल बनने का दबाव है, तो औरतों के कंधों पर घर-बाहर, दोनों का पहाड़.  कहीं खोखली सामाजिक प्रतिष्ठाएं इंसान को घेर रही हैं, तो कहीं तमाम लोग पैसे और शोहरत के पीछे भाग रहे हैं. सभी इस अंतहीन, अंधी दौड़ में शामिल हैं और इसका अंत डिप्रेशन के रूप में हो रहा है. आज, देश का हर छठा इंसान डिप्रेशन का शिकार है.

★वैश्विक स्तर पर. 1 प्रतिशत से भी कम अनुदान दिया जाता है वैश्विक स्तर पर सरकारों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य विभाग को क्योंकि प्राथमिकता सूची में वह शामिल नहीं है. 2.5 ट्रिलियन डॉलर वैश्विक स्तर पर खर्च होता है मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिवर्ष. लेकिन अगर मानसिक विकार दूर करने के लिए समय पर कदम नहीं उठाया गया तो अनुमान है कि वर्ष 2030 तक मानसिक रोगियों के इलाज का खर्च बढ़कर 6 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जायेगा. 9 ट्रिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान हो सकता है भारत और चीन की अर्थव्यवस्था को 2016 से 2030 के बीच आत्महत्या और मानसिक विकार के कारण.

★6.5 प्रतिशत के करीब भारतीय जनसंख्या गंभीर मानसिक विकार से जूझ रही है, जिसके 2020 तक 20 प्रतिशत तक बढ़ जाने की आशंका है. 80 प्रतिशत मानसिक विकार से जूझ रहे लोग इससे निबटने के लिए किसी प्रकार का उपचार नहीं लेते हैं

100,000 लोगों पर महज एक मनोवैज्ञानिक, मनाेविश्लेषक या चिकित्सक उपलब्ध हैं, 2014 की रिपोर्ट के अनुसार, जो मानसिक स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी को दर्शाते हैं. 4,000 मनोचिकित्सक, 3,500 मनोवैज्ञानिक और 3,500 ही मानसिक स्वास्थ्य सामाजिक कार्यकर्ता हैं हमारे देश में. स्रोत : विश्व स्वास्थ्य संगठन  व लैंसेट रिपोर्ट भारतीय किशोरों की स्थिति चिंताजनक एनएमएचएस 2015-16 की रिपोर्ट कहती है कि 13 से 17 साल के 7.3 प्रतिशत भारतीय किशोर मानसिक विकार से ग्रस्त हैं और यह विकार लड़के और लड़कियों में समान मात्रा में विद्यमान है. स्थिति इतनी गंभीर है कि मनोरोग से ग्रस्त 13-17 वर्ष के लगभग 98 लाख यानी 9.8 मिलियन भारतीय युवाओं को तत्काल इलाज की जरूरत है. वहीं एक सच यह भी है कि ग्रामीण किशारों के 6.9 प्रतिशत की तुलना में महानगरों में रहने वाले किशारों के बीच मानसिक विकार दोगुना (13.5 प्रतिशत) है.

★आज भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के 50 प्रतिशत बच्चे और 25 वर्ष से कम उम्र के 75 प्रतिशत युवा अवसाद की चपेट में हैं

★जिन लोगों में क्लिनिकल डिप्रेशन की पहचान होती है, उनको सालों बाद पता चलता है कि उन्हें मदद की जरूरत थी. आज, हमारा पूरा समाज अंधी दौड़ में शामिल है. पैसे और प्रसिद्धि की चाह लोगों में बेचैनी व चिंता पैदा कर रही है और उन्हें अवसाद का शिकार बना रही है. अवसाद के आम लक्षण निरंतर बदलती मनोदशा, चिंता, आंदोलन और उदासीनता अनिद्रा सुबह उठने में कठिनाई सुस्ती और उनींदापन, दैनिक मामलों में रुचि की कमी थकान और थकान के परिणामस्वरूप धीमा और निष्क्रिय होना अधिक खाने या इसके विपरीत भूख की कमी शरीर में अकारण दर्द और मोच लगना शराब, तंबाकू और कैफीन की खपत बढ़ना आत्महत्या की प्रवृत्ति ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई और कार्यों को पूरा करने के लिए अधिक समय लेना सब कुछ व्यर्थ लगना, निराशा और असहाय भावनाएं अवसाद से बचने के कुछ उपाय अपने काम के तनाव में आकर परिवार और दोस्तों से खुद को दूर रखें. अपने परिवार के साथ ज्यादा समय बिताने की कोशिश करें. अपने दोस्तों से मिलें, घूमने जाएं. रोजाना वाक पर जाएं, जॉगिंग करें, संभव हो तो स्विमिंग (तैरना) भी करें. आप योग भी सीख सकते हैं. व्यायाम करने और फिट रहने से मानसिक स्वास्थ्य बेहतर रहता है और जीवन में सकारात्मकता को बढ़ावा मिलता है. नकारात्मक ऊर्जा भी खत्म होती है. स्वस्थ भोजन न केवल आपके शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रखने में मदद करता है, बल्कि आपके मानसिक स्वास्थ्य को भी बेहतर बनाता है. अपने आहार में विभिन्न प्रकार के फल, सब्जियां, मांस, कम वसा वाले डेयरी खाद्य पदार्थ और मछली आदि शामिल करें. साथ ही ढेर सारा पानी भी पीएं. अपने कार्य और जीवन में संतुलन बनाये रखें. कोशिश करें कि ऑफिस के काम को घर पर न लाएं. काम से संबंधित स्ट्रेस का मुकाबला करने के अपने तरीके इजाद करें. शराब, तंबाकू और कैफीन का सेवन तात्कालिक तौर पर मूड को ठीक कर सकता है. लेकिन, लंबी अवधि में, वे केवल आपके मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं. अत: इन्हें त्यागने की कोशिश करें. अवसाद के कारण आप चीजों को भूलने लगते हैं. इससे कई बार कई तरह के भ्रम पैदा होते हैं और आत्म-सम्मान प्रभावित होता है. इस स्थिति से निबटने का एक तरीका यह हो सकता है कि आप निरंतर नोट्स लेते रहें, तािक चीजें याद रहें. याद रखें कि मानसिक स्वास्थ्य ठीक हो सकता है, लेकिन हार मान लेना कभी ठीक नहीं हो सकता है. खुद को कम नहीं आंकना चाहिए. अपने आप को भी प्यार करना चाहिए. इसके लिए, उन कार्यों की एक सूची बनाएं, जो आपको हर्षित करती हैं और हर दिन कम से कम एक करने का लक्ष्य रखें

★अगर आंकड़ों में देखें तो आज देश के हर बीस व्यक्तियों में से एक अवसाद का शिकार है। बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज ने कुछ समय पहले वर्ष 2015 में कराए गए एक सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक 2015 में अवसाद के तीन करोड़ पैंतीस लाख नए मरीजों ने देश के अलग-अलग अस्पतालों में पंजीकरण कराया था। वर्ष 2014 के आंकड़ों की तुलना में इस संख्या में ग्यारह लाख यानी चौदह फीसद नए मरीजों का इजाफा हुआ। सर्वेक्षण में यह भी कहा गया कि अवसाद के मरीजों की संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है। अवसाद को लेकर गंभीरता का यह एक पहलू है जिससे साबित होता है कि अब बहुत से लोग इसे छिपाने की बजाय उसके इलाज की कोशिश करने लगे हैं। यह भी सच है कि खासतौर से शहरों में मनोचिकित्सकों की संख्या बढ़ी है। लेकिन दो बड़ी समस्याएं हैं। पहली तो यह कि अवसाद के इलाज की जिम्मेदारी ज्यादातर मामलों में व्यक्तिगत मानी जाती है। यानी जो इसका शिकार है, अगर समझ पाए तो उसके इलाज की व्यवस्था करे। दूसरी समस्या यह कि अवसाद से निपटने की कोई खास योजना सरकार के पास नहीं है। देश भर में मनोचिकित्सा के सरकारी केंद्रों की बात करें तो उनकी संख्या अभी पचास को भी पार नहीं कर पाई है। इसमें पंजाब, नगालैंड, दिल्ली और गोवा जैसे राज्यों में महज एक-एक सरकारी चिकित्सा केंद्र है। यही नहीं, मानसिक बीमारियों के इलाज के सरकारी और निजी अस्पतालों की संख्या भी पूरे देश में एक हजार भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि अवसाद सिर्फ भारत की समस्या है। दुनिया के कई मुल्क इससे जूझ रहे हैं। अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे विकसित देश भी अवसाद को बड़ी समस्या मानते हैं और इसके लिए वहां बाकायदा जागरूकता के कार्यक्रम चलाए जाते हैं और इलाज की पुख्ता व्यवस्था सरकारी स्तर पर भी की जाती है। अगर संख्या की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में पैंतीस करोड़ लोग अवसादग्रस्त हैं।

 

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