साथियो,पिछले दिनों नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए आयोजित राष्ट्रीय स्तर की क्लैट परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ है जिसमें जयपुर के तीन दोस्त अमन, देवांश और अनमोल ने क्रमशः तीन ऑल इंडिया रैंक पायीं।एक बार पुनः समूह में पढ़ाई का महत्व प्रतिपादित हुआ।
हिंदी में दो बहुत अच्छे शब्द हैं-प्रतियोगी और पूरक ।प्रतियोगिता के दौर में इन दोनों शब्दों का बहुत इस्तेमाल होता है लेकिन जब इनका प्रयोग गलत जगह पर होता है तो घातक परिणाम प्राप्त होते हैं।स्पष्टतः ये शब्द पर्यायवाची नहीं हैं।किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में लाखों छात्र बैठते हैं और यदि आप के संबंध बहुत सारे लोगों से हैं तब भी आप उनमें से हजार-पांच सौ को ही जानते होंगे।स्पष्ट है कि आपको उन योद्धाओं से लड़ना है जो कि आपकी आँखों से ओझल हैं।ऐसी स्थिति में एक तरीका है आप अकेले लड़ें और दिन रात लड़ें जबकि दूसरा तरीका है कि आप अपने अच्छे बुद्धिमान विश्वसनीय साथियों का सहयोग लें और परीक्षा में सफल हों।
मुझे दूसरा तरीका प्रभावी लगता है क्योंकि इससे हम कम समय में ज्यादा विस्तृत क्षेत्र तक पहुंच पाते हैं और हमारे अध्ययन की गुणवत्ता बढ़ती है।मित्रो,हममें से कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं है।हममें से प्रत्येक व्यक्ति अनूठा और अद्वितीय है,किसी की रूचि खेल में तो किसी की इतिहास-संस्कृति में हो सकती है,किसी को विज्ञान अच्छा लगता है तो कोई साथी संविधान का ज्ञाता हो सकता है।हम अपने साथियों में अध्ययन के विषय उनकी रूचि के हिसाब से बांट लें जिससे नोट्स बनाने में सुविधा होगी,किताबें खरीदने में अपव्यय नहीं होगा और माइक्रो लेवल प्लानिंग हो सकेगी।साथ मे अध्ययन करने से समालोचना करने का अवसर मिलेगा जिसका परिणाम व्यक्तित्व विकास के रूप में दिखेगा और आपस की झिझक खत्म होगी।इस प्रकार हम साथियों के पूरक और अन्य लोगों के लिए प्रतियोगी बन सकेंगे।
अब प्रश्न उठता है कि ग्रुप में कितने साथी ठीक रहेंगे।मेरा मानना है कि चार-पांच लोगों का समूह अध्ययन के हिसाब से उपयुक्त है लेकिन उनका लेवल लगभग एक सा हो,आदतों में साम्य हो और आपस मे ईमानदारी हो।क्योंकि समूह में विश्वशनीय होना और खुलापन आवश्यक है।अक्सर हमने देखा है कि किसी प्रश्न का उत्तर न जानने वाला भी तुक्का मार देता है ऐसी स्थिति मे कांसेप्ट खराब होने की संभावना बन जाती है।यदि आपको उत्तर पता नहीं है तो सपाट तरीके से मना कर देना और मिलकर उसका हल ढूंढना ज्यादा उचित है।
जरूरी नहीं है कि ग्रुप के सभी साथी एक ही स्थान पर रहें बल्कि अलग अलग स्थानों पर रहकर भी यह कार्य कर सकते हैं लेकिन एक दो दिन के बाद एक निश्चित स्थान पर साथ बैठना आवश्यक है।जिस साथी को जो जिम्मेदारी सौंपी जाए उसे पूर्ण करने का भरसक प्रयत्न करना जरूरी है नहीं तो एक पढ़ेगा और बाकी मजे करेंगे।ऐसी दशा में आपका ग्रुप एक बोझ बन जायेगा।
मैंने स्वयं एक ग्रुप के रूप में 1996 बैच में मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास की थी।ग्रुप के दो सदस्य चयनित होकर आज IAS हैं,एक साथी एडिशनल SP,एक साथी जेलर,एक वैज्ञानिक और एक गणित के प्रोफेसर हैं।
क्लैट में इन दोस्तों की सफलता बताती है कि हम एक और एक दो नहीं बल्कि ग्यारह हो सकते हैं।याद रखें किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में अच्छे पद जितने हैं उतने दोस्त आपके पास नहीं हैं,इसलिए जब भी सफलता का प्रयास हो तो सब प्राणप्रण से प्रयास करें और सब सफल हों ऐसी कामना करें।आपस मे एक दूसरे को धोखा न दें क्योंकि धोखा देकर आप आगे नहीं बढ़ सकते। ज्ञान जितना बांटेंगे उतना बढ़ेगा इसलिए “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की संकल्पना को आगे बढ़ाएं।
यदि आप किसी भी विषम परिस्थिति से व्यक्तिगत के बजाय सामूहिक रूप में लड़ते हैं तो आपके जीतने की सम्भावना कई गुना बढ़ जाती है|इसके साथ ही समूह में रहकर प्रयास करने से आप में निराश होने की प्रवृत्ति भी कम होगी इसलिए चाहे प्रतियोगिता परीक्षा हो,कार्यालयीन कार्य हो अथवा कोई अन्य महत्वपूर्ण काम,सफलता चाहते हैं तो टीम बनाइये,भरोषा कीजिये और जीतिए|