दिव्याँगता शरीर का न होकर मन का भाव है

Inspirational

साथियो,कुछ दिन पूर्व मुझे अर्जुन अवार्ड विजेता भारत के पूर्व हॉकी कप्तान संदीप सिंह के जीवन पर आधारित फिल्म “सूरमा” देखने का अवसर मिला। 21 अगस्त 2006 को, शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन में एक आकस्मिक बंदूक की गोली लगने के बाद सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए थे, जबकि वे दो दिन बाद अफ्रीका में विश्व कप के लिए राष्ट्रीय टीम में शामिल होने के लिये यात्रा कर रहे थे। वह लगभग अपने जीवन के 1 वर्ष के लिए लगभग लकवाग्रस्त रहकर व्हील चेयर पर रहे। उनकी जगह और कोई होता तो शायद हार मान लेता लेकिन उन्होंने न केवल अपने मनोबल को बनाये रखा बल्कि पेनल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ के तौर पर स्थापित किया और 145 किमी/घंटा की गति से विश्व के सर्वश्रेष्ठ ड्रैग फ्लिकर कहलाये। 2006 की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद हॉकी जैसे गति और संतुलन वाले खेल में टीम में स्थान बनाना और टीम का कप्तान बनना अभूतपूर्व था। ऐसे ही एक जोशीले व्यक्तित्व के साथ मुझे जिला पंचायत ग्वालियर में काम करने का मौका मिला।विक्रम अवार्ड से सम्मानित सत्येंद्र सिंह ने कुछ दिन पूर्व इंग्लिश चैनल को तैरकर पार करते हुए इतिहास रचा है।वे दोनों पैरों से दिव्यांग हैं लेकिन उनके चेहरे पर जो तेज है उसे देखकर अच्छा खासा तंदुरुस्त व्यक्ति भी शर्मा जाए।उनके इस प्रदर्शन के पीछे हमारे तत्कालीन कलेक्टर श्री पी.नरहरि का योगदान अविस्मरणीय है क्योंकि उन्होंने न केवल सत्येंद्र की प्रतिभा को पहचाना बल्कि प्रोत्साहित कर उसे सार्थक दिशा दी।बाकी का काम सत्येंद्र सिंह की मेहनत ने किया और यह सिद्ध कर दिया कि दिव्यांगता केवल शरीर मे होती है मन मे नहीं। इतिहास में हजारों उदाहरण हैं जबकि विकलांग व्यक्तियों ने असाधारण प्रदर्शन किया। तैराकी के बादशाह माइकल फेल्प्स की दाहिने हाथ की कलाई 2006 में फ्रैक्चर हो गयी थी और डॉक्टर्स ने कहा कि वे अपने हाथ का इस्तेमाल अब उतनी तेजी से नहीं कर पाएंगे तो फेल्प्स ने अपने पैरों को मजबूत बनाते हुए 2008 में ओलंपिक में तैराकी के समस्त गोल्ड अपने नाम कर लिए।महान व्यक्ति चुनोतियों से मात नहीं खाते अपितु चुनोतियों को मात देकर आगे बढ़ जाते हैं।27 वर्षीय अरुणिमा सिन्हा ने 11 अप्रैल, 2011 को एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अपने बाएं पैर को खो दिया।लेकिन अरुणिमा ने 21 मई, 2013 को अपनी कमजोरी को अपनी सबसे बड़ी ताकत में बदलने और उसके सही दृढ़ संकल्प में बदलने का फैसला किया, उसने एक कृत्रिम पैर की मदद से माउंट एवरेस्ट पर कब्जा करने के लिए पहली भारतीय अपंग बनने के लिए दुर्लभ उपलब्धि हासिल की है। दो वर्ष की आयु में अपने देखने,बोलने और सुनने की क्षमता खोने वाली हेलन केलर को कौन भूल सकता है,मैडम सेलवन के मार्गदर्शन में उन्होंने छूकर एवं सूंघकर बोलना,लिखना और भाषण देना सीखा।वे विश्व की पहली दृष्टिहीन-बहरी महिला स्नातक बनीं।उनकी जीवनी “A story of my life” बहुत प्रेरणादायक है।स्टोव जलाते वक्त एक बालक आग से झुलस गया और उसका पूरा शरीर जल गया,बच गया तो केवल निचले शरीर का ढांचा।डॉक्टर ने कहा कि अब इसे पूरा जीवन व्हीलचेयर पर चलेगा लेकिन ग्लेन कनिंघम को यह मंजूर नहीं था।उन्होंने ठान लिया कि उन्हें दौड़ना है इसलिए वे रोज अपने आप को व्हीलचेयर से गिरा देते और घास पर घिसटते हुए दीवार के सहारे खड़े होने का प्रयास करते।बाइस महीने तक लगातार प्रयास करने के बाद वे खड़े होने लगे और धीरे-धीरे चलने लगे।पच्चीस वर्ष की आयु में सन 1934 में उन्होंने एक मील की दौड़ सबसे कम समय मे पूरी करने का विश्व रिकॉर्ड बनाया,1936 में बर्लिन ओलंपिक में सिल्वर मेडल जीता एवं लंबी दूरी के सर्वकालिक प्रसिद्घ अमेरिकन एथलीट कहलाये। फ्रांस के जाने माने अभिनेता,लेखक और फैशन मैगजीन Elle के एडिटर जीन डोमिनिक बॉबी को 43 वर्ष की आयु में एक स्ट्रोक हुआ और उनका पूरा शरीर पैरालाइज हो गया लेकिन बायीं आंख में जीवन शेष था।वे अपनी बायीं पलक को ऊपर-नीचे कर सकते थे । सब कुछ खत्म हो चुका था।लेकिन उनके मन मे जीवन के प्रति गहरी ख्वाहिश जिंदा थी।उनके सामने जीने का कोई मकसद नहीं था।लेकिन उन्होंने मन मे ठाना कि उन्हें एक किताब लिखना है,पर लिखें कैसे?उन्होंने अपने मन मे पूरी किताब लिख ली लेकिन अब समस्या थी उस किताब को दुनिया के सामने लाने की।साथियो,इसका हल निकाला गया।उनके सामने एक एक अक्षर लाया जाता था और वे बायीं पलक झपकाकर हामी भरते थे,इस तरह एक शब्द फिर एक वाक्य और आखिरकार 144 पन्नों की एक किताब पूरी हुई।किताब का शीर्षक था “the diving bell and the butterfly”।आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि किताब पूरी होने के 02 दिन बादउन्होंने इस दुनियां को अलविदा कह दिया शायद उनके जीवन का मकसद पूरा हो गया था।यूनान में सात वर्ष की आयु में डिमास्थनीज़ के माता-पिता की मौत हो गयी।वह हकलाकर बोलते थे।आसपास के सभी लोग उन पर हंसते थे।वे निराश नहीं हुए उन्होंने अपने आप को पूरी दुनियां से अलग कर लिया और बोलने का अभ्यास शुरू किया ।इसके लिए वे अपने मुँह में पत्थर भर लेते थे,सांस को रोकने का वर्षों अभ्यास किया और विश्व विख्यात वक्ता बने । पश्चिमी संगीत के दिग्गज विथोबन को कौन नहीं जानता लेकिन क्या आपको मालूम है कि 28 वर्ष की आयु में एक दुर्घटना में वो बहरे हो गए थे और उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ संगीत बहरे होने के बाद ही दुनिया को सौंपा।उन्हें तो अपनी प्रस्तुति के बाद तालियों की गड़गड़ाहट भी समझ नहीं आती थी।वे तो अपनी रूह से केवल संगीत सृजन करते थे।अब मैं बात करना चाहूंगा दो मंद बुद्धि बालकों की जिनमें से एक बहरा था और दूसरा ठीक से बोल नहीं पाता था।जो बहरा था उसे हम लोग थॉमस अल्वा एडिसन के नाम से जानते हैं और जो ढंग से बोल नहीं पाता था वह इतिहास में अल्बर्ट आइंस्टीन के नाम से अमर है।इन दोनों जीनियस वैज्ञानिकों ने जीवन मे कभी हार नहीं मानी और हजारों बार असफल हुए।अभ्यास ही उनका मूलमंत्र था और सफलता उन्हें एक बार पुनः प्रयास करने को प्रेरित करती थी।अपने जीवन मे 1093 आविष्कार करने वाले एडिसन कहते थे कि बहरा होने के कारण उन्हें फालतू की चीजें नहीं सुनना पड़ती हैं और वे काम पर अच्छे से फोकस कर पाते हैं। इन दोनों को ही कभी भी स्कूली शिक्षा रास नहीं आयी और खुद की दम पर पढ़ते हुए आगे बढ़े।मानसिक अस्थिरता(सिजोफ्रेनिया) से पीड़ित (पैरानॉइड स्क्रित्ज़ोफ़्रेनिया में मरीज की ऐसी अवस्था हो जाती है, जिसमें वह सच्चाई और अपनी ख़ुद की बनाई दुनिया के बीच अन्तर नहीं जान पाता. हर मरीज को अलग किस्म के अनुभव और कल्पनाएं होती हैं) जॉन नैश ने आखिरकार दवाइयां लेना बंद कर दी थीं लेकिन हिम्मत नहीं हारी और अपना शोध कार्य जारी रखा जिसका परिणाम था 1994 में इकोनॉमिक्स,गणित और गेम थ्योरी पर नोबल प्राइज़ का मिलना।स्टीफन हॉकिंग की चर्चा किये बिना यह लेख अधूरा रहेगा।इक्कीस वर्ष की आयु में जीनियस माने जाने वाले हॉकिंग को एक ऐसी बीमारी motor neurone disease (also known as amyotrophic lateral sclerosis, “ALS”, or Lou Gehrig’s disease) घेरा जिसमें उनका सम्पूर्ण शरीर धीरे धीरे पैरालाइज होता जा रहा था।डॉक्टर्स ने कहा कि वे केवल 02-03 साल ही जीवित रहेंगे।लेकिन अपनी जिजीविषा के कारण वह पचास वर्ष से अधिक समय तक न केवल जीवित रहे अपितु ब्लैक होल,थ्योरी ऑफ टाइम,और गॉड पार्टिकल जैसी असंख्य खोजें की।उनकी खोजों का मूल्य तब और बढ़ जाता है जब हमें यह पता चलता है कि 1985 के बाद न वे बोल सकते थे,न चल सकते थे और न अपना शरीर यहां तक कि अंगूठा भी नही हिला सकते थे।लेकिन मन के भावों को इंटेल द्वारा तैयार विशेष कंप्यूटर के माध्यम से वे दुनिया के सामने लाते रहे।नृत्यांगना सुधा चंद्रन,संगीतकार रवींद्र जैन,ग्यारह माह की आयु में दोनों पैर का घुटने के नीचे का हिस्सा खोने के बावजूद ब्लेड रनर ऑस्कर पिस्टोरियस(जिनके नाम पेरालिम्पिक्स के कई गोल्ड हैं और जिन्होंने 2012 के लंदन ओलंपिक्स में भाग लिया), उनके जीवन के प्रति जोश और जज़्बे को सलाम क्योंकि वे मरते हुए भी जी रहे थे और हम जीते हुए भी अपने आप को मरा हुआ समझ रहे हैं और मौत की प्रतीक्षा में जीना छोड़ बैठे हैं।दोस्तो,हमारे पास सम्पूर्ण शरीर है लेकिन हम उसका मूल्य नहीं समझ रहे हैं।हमारा जीवन उद्देश्यहीन जैसा है।हमारा कोई लक्ष्य नहीं है।सुबह से शाम तक एक जैसी बोरिंग जिंदगी।ऐसा लगता है जैसे हम अपनी जिंदगी जी नहीं रहे हैं बल्कि ढो रहे हैं।जिंदगी के जितने दिन निकल गए क्या वे लौटकर वापिस आएंगे?दलाई लामा जी ने क्या खूब कहा है कि पहले तो जीवन भर पैसा कमाने में स्वास्थ्य की ओर ध्यान नहीं देते और जब कोई गंभीर बीमारी हमें घेर लेती है तो उस पैसे से स्वास्थ्य को वापिस प्राप्त करने का असफल प्रयास करते हैं।इस बीच मे जीवन हमने जिया या नहीं,हमें याद ही नहीं रहता।इसलिए हमारे पास जो है,उसका आनन्द लीजिये और यह आनंद आज और अभी लीजिए क्योंकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आज सोने के बाद आप कल जागेंगे ही।ऊपर जिन सख़्शियतों के बारे में बताया गया है,उन सबमे एक समानता है-उन्होंने एक सपना देखा,अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत बनाया और लक्ष्य पर फोकस कर दिया।साथ ही उन सबने संकल्प लिया कि हम लड़ेंगे और तब तक लड़ेंगे जब तक कि जीत नहीं जाते…जीवन जब तक है तब तक कठिनाइयां रहेंगी ही।किसी ने क्या खूब लिखा है:- चाहे जो हो जाये,एक रास्ता जरूर होता है मंजिल तक पहुंचने के लिए।अंधेरा जितना घना हो,भोर की उम्मीद क़ाफी है रात भर चलने के लिए ।।

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